२५ जून का दिन बहुत ख़ास है. लेकिन क्यों, यह शायद आप में से बहुतों को याद न हो. आज ही के दिन 43 साल पहले, इक्कीस महीनों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा हुई थी. आपातकाल का लगाया जाना और उसका ख़त्म होना उन लोगों के लिए एक कभी ना भुलाई जाने वाली घटना है, जिन्होंने किसी न किसी रूप में इसका दंश भोगा है. पच्चीस जून , ७५ को जब आपातकाल लगा मैं जूनियर स्कूल में पढ़ती थी. संपादक और लेखक की बेटी थी, घर का माहौल हमेशा ही अखबारों और पत्रिकाओं से भरा रहता था, उस समय को अगर भारत की पत्रकारिता का स्वर्णिमयुग कहा जाये तो गलत न होगा. हमारे परिवार में एक रिवाज़ था जिसका पालन हर हाल में होता था. सुबह के समय घर में आने वाले सभी विचारधाराओं के कम से कम आठ से दस अखबार ले कर पिताजी, माँ और हम बच्चे बैठ जाया करते थे. हिन्दी – अंग्रेज़ी पढ़ने का अभ्यास होता था, कोई बच्चा पिताजी के निर्देश पर किसी अखबार से एक समाचार पढ़ता, फिर माँ और पिताजी उसपर चर्चा आते हुए सुबह की चाय पीते और हम बच्चे अपने दूध के गिलास पकड़ कर मुह उठा कर उसको सुनते. पिताजी जागरण समूह द्वारा प्रकाशित लोकप्रिय हिन्दी पत्रिका कंचनप्रभा के संपादक थे, उस पर भी चर्चा होती, हम बच्चे और हमारी माँ उसके सबसे बड़े आलोचक थे. रोज़ अख़बारों में जयप्रकाश नारायण की बड़ी बड़ी सभाओं की ख़बरें और फोटो छपती. जयप्रकाजी से पिताजी का परिचय और स्नेह था, वो हमारे ननिहाल के भी पारिवारिक मित्र थे तो स्वाभाविक ही माँ की भी उनमे बड़ी रूचि होती थी. तभी एक दिन खबर आई इलाहबाद हाई कोर्ट ने रायबरेली में हुए चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत के विरुद्ध राजनारायण के पक्ष में निर्णय दिया. न केवल उनका संसद का चुनाव निरस्त कर दिया गया, उनको अगले छः वर्षों के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया. सत्ता से दूर रहना श्रीमती गांधी को सहन नहीं था. जयप्रकाश नारायण के समग्र क्रांति की आवाज़ और और उनके साथ खड़ा जनसमुदाय भी उनकी नींद उड़ाए था. नतीजन पच्चीस जून, ७५ की आधी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद द्वारा घोषणा करा के देश में आतंरिक आपातकाल घोषित कर दिया गया.
आपातकाल क्या था, उसके क्या प्रभाव हो सकते हैं, देश के लिए और सामान्य नागरिक यह स्थिति क्यों जहरीली है, इसकी समझ नहीं थी. लेकिन मेरे बाल मन – बुद्धि ने कानो से सुने और आँखों से देखे को जितना समझा वह भी कभी ना भूलने वाला अनुभव था. महीने के आखिरी सप्ताह था, कंचनप्रभा का नया अंक बाजार में आने को तैयार था, सुबह सबसे पहले पत्रिका के सभी अंक वितरकों से वापिस मंगाए गए, सम्पादकीय बदला गया, नए सम्पादकीय का शीर्षक था ” शर्म” और उसमें आपातकाल के लिए इंदिरा गांधी की जम के लानत मलानत की गयी . उधर दैनिक जागरण के मालिक और संपादक श्री नरेंद्र मोहन, हमारे पिता के मित्र होने के नाते हम उन्हें चाचाजी कहते थे, ने भी सम्पादकीय की जगह पूरी खाली छोड़ कर आपातकाल के प्रति अपना विरोध प्रदर्शित किया. चौबीस घंटे भी नही बीते होंगे कि नरेंद्र मोहन बदहवास से हमारे घर आये, आते ही बोले, ” शम्भू भाई, गजब हो गया. हमारे तुम्हारे नाम लिस्ट में निकल गए है, नेताओं के अलावा बहुत से पत्रकार भी गिरफ्तार हो गए हैं या फरार हैं. भाग चलो, पकड़ गए तो न जमानत होगी न पता चलेगा की कहाँ फेंक दिए गए. ” मेरे माता पिता तैयार थे अपने किये का परिणाम भुगतने के लिए, उलटे नरेंद्र मोहन को ही उन्होंने अपने घर रोक लिया. बाद में किसी शुभचिंतक ने अपने ही प्रयास से सूचना प्रसारण मंत्रालय की हिट लिस्ट से उनका नाम हटवा दिया. ये तो समझ आया, बच्चा भी समझ सकता था , कि घर पर कुछ संकट है. पिताजी के प्रकाशक के दफ्तर में काम करने वाले भरत भैया, जिन्होंने कितनी ही बार बेबी सिटिंग सेशंस में कहानियां सुनायी थीं, बाजार से लाके चोरी छुपे कुल्फी खिलाई थी, अचानक दिखाई देने बंद होगये. बार बार पूछने पर भी बड़ों से कोई जवाब नहीं मिला. दो साल बाद भरत भैया प्रकट हुए, वजन आधा, चेहरा पीला , आँखों के नीचे काले गड्ढे, पहचान ही नहीं आ रहे थे. तब पता चला की शाखा में जाने की वजह से आपातकाल के शुरू में ही पुलिस उनको पकड़ कर किसी अज्ञात स्थान पर ले गयी थी. न जमानत, ना मिलाई, न इंटरव्यू. साथ पढ़ने वाली एक सहेली के डॉक्टर पिता को एक दिन अचानक पुलिस आके पकड़ ले गयी, क्योंकि उनके मरीजों में बहुत से गैर कोंग्रेसी रुझान के लोग थे. डॉक्टर साहब की किस्मत हमारे भरत भैया जैसी नहीं थी. आपातकाल समाप्त होने के बाद बहुत कोशिश के बाद भी उनका पता नहीं चला. सुनने में आया कि जेल के कठोर जीवन को सह नहीं सकने की वजह से उनकी मृत्यु हो गयी. लेकिन सरकार की ओर से उनके परिवार को कोई खबर तक नहीं दी गयी. हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और जुलूस प्रदर्शन तो बड़े दूर की बात थी. उसके बाद दिल्ली से एक और पारिवारिक मित्र आये. पिताजी की सिफारिश पर उनको दैनिक हिन्दुस्तान के दिल्ली संस्करण के सम्पादकीय विभाग में काम मिला थी और उस समय वे इंडियन एक्सप्रेस में काम कर रहे थे. पता चला की नौकरी में होते हुए भी वे भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रहे थे क्योंकि कई महीनों से उन्हें नियमित वेतन ही नहीं मिला था. तब कुछ छन छन कर बातें पता चलीं, जिनका पूरा मतलब बड़े होने के बाद ही पता चला की किस तरह से एक अखबार समूह को सरकार अपने अनुरूप न ढाल सकने के कारण सत्ता का दुरूपयोग करते हुए बर्बाद कर रही है. फिर एक दिन आया कि हमारे शहर के सुंदरीकरण का अभियान शुरू हुआ है. आनन फानन डिमोलिशन दस्ता बुल्डोज़र लेके गली में आ गया. चुन चुन कर घर गिराये जाने लगे. हमारे लिए तो उत्सव का दिन हो गया क्योंकि मोहल्ले का स्कूल जहाँ हम पढ़ते थे उस दिन बंद कर दिया गया था. घर की मुंडेर लटके हुए हम बच्चे समझने की कोशिश कर रहे थे कि एक से बने घरों में से कोई तो सरकार को सुन्दर लग रहा है किसी को असुंदर समझ कर सरकार तोड़ रही है. ना तो कोई पूर्व सूचना न वार्निंग, न मजिस्ट्रेट का आर्डर. फिर पता चला कि जो घर छूटे वो सत्ता के समर्थकों के थे. उस समय विपक्ष अपनी बातों को लोगों तक पहुचाने के लिए पर्चों का सहारा लेती थी, जिनको कोई रहयमय तरीके से घर के मुख्य द्वार से अंदर डाल जाता था. कितने छोटे प्रिंटर और कम्पोज़ीटर बिना समझे ही पर्चे छापते थे और पुलिस उनको भी उठा ले जाती थी.
मैं तब इस सबका मतलब ठीक से नहीं समझी, छोटी बच्ची थी ना !
आप तो इसका मतलब समझे ना??
इसका मतलब है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा गयी तेल लेने!!
इक्कीस मार्च, 77 , इंदिरा गांधी के चापलूसों ने जनता जनार्दन को समझने में गलती की, और घुटनों के बल रेंगते हुए अधिकतर उद्योगपतियों ,पत्रकारों, राजनीतिज्ञों को ही भारत समझने की भूल कर बैठे. उनकी बात मान कर इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटा कर चुनाव घोषित कर दिए. एक एक कर के नेता जेल से छोड़े जाने लगे. जयप्रकाश जी का वृद्ध शरीर जेल में होने वाले दुर्व्यवहार को झेल न सका और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया, फिर कभी वे स्वस्थ ना हो सके.गुर्दे फेल होने से उनकी मृत्यु हुई थी. कम ही लोग जानते हैं की अटल बिहारी बाइपेई भी जेल से सदा साथ रहने वाली बीमारियां ले कर आये थे. विपक्ष के सभी नेताओं का कमोवेश यही हाल था. ये तो बड़े नेता थे, गली मोहल्ले के कितने लोग सरकार के विरोधी होने के नाते जेल से टूट फूट कर बाहर आए थे, कुछ तो आ भी नहीं पाए थे. जो वापिस आए भी, उनकी पढ़ाई, नौकरियां, बिज़नेस, बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर कभी ना सुधर सकने वाला दुष्प्रभाव पड़ा.
आपातकाल सदा से भारत के इतिहास ऐसा अध्याय रहा है जो मुझे बहुत आकर्षित करता है, क्योंकि यह इतिहास का पहला पन्ना था जिसकी मैं साक्षी रही. बड़े होने पर जितना इसके बारे में पढ़ा – सुना उतना ही इसकी भयंकरता का एहसास हुआ.
भारत – पाकिस्तान का बँटवारा और आपातकाल दो विषय ऐसे हैं, जिनपर आधुनिक भारत में सबसे ज्यादा लिखा और पढ़ा गया है. भगवान ना करे ऐसे हादसे दोबारा दुहराये जाएं. लेकिन जाने क्यों कुछ लोगों को इसको फिर से जीने का बड़ा शौक है. जैसा छोटा बच्चा गुब्बारे वाले से नकली मूछें लेके लगा लेता है और अपने ताऊ की नक़ल करके सोचता है की सब सचमुच ही उसे उसका ताऊ समझ लेंगे। वैसे ही आज कल बहुत से नेता आपातकाल का भेड़िआ आने की पुकार लगा के खुद को उनके समकक्ष खड़ा करके हीरो बनाना चाहते हैं, जो आपातकाल में झुके नहीं और भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए सत्ता के सामने खड़े हो गए, जिन्होंने सब परेशानियां उठा कर भी भारत माता को सत्ता का पर्यायवाची नहीं माना, इस देश के अंदर अपूर्व कष्ट पा कर भी कभी इसके टुकड़े करने की कामना नही की. कम उम्र युवा नेता अगर एक बार कहें की भारत में आपातकाल जैसा माहौल है तो फिर भी लगता है की ये साक्षर अपढ़ हैं, इन्होने आधुनिक भारत के विषय में अपनी पाठ्य पुस्तकों से आगे कुछ जाना ही नहीं है. लेकिन साठ पार के बुजुर्ग नेता, जिन्होंने इंदिरा गांधी का शासन काल देखा है, जिन्होंने मुझसे भी ज्यादा गहराई से आपातकाल देखा और समझा होगा जब वह ऐसी बातें कहते हैं तो लगता है कि कहीं न कहीं तो इनकी नियत में खोट ज़रूर है.
पुरानी स्मृति डरावने सपने की तरह फिर से डरा गई…. बिलकुल सही लिखा है। सके लोगों को बताओ।
लाला चाचा कानपुर से
लाला चाचा कानपुर से:
पुरानी स्मृति डरावना सपने की तरह से फिर से डरा गई है ! बिलकुल सही लिखा है जितना हो सके लोगों को बताओ ! आज कल के बच्चो को पता तो चले की ये क्या दहशत थी
Really informative…
Could emulate each and every scene..very well depicted and narrated
बहुत अच्छा!👌👌
चित्रा मेम।।🙏🇮🇳😊💐
बहुत बढ़िया चित्राजी 🙏, कोई बात नहीं करता उन वीरों की जिन्होंने जेलों मे अपनी जान गवाई, जिनके घर उजड़ गए। पर नोट बंदी के समाए जो कुछ लोगों ने अपनी जान गंवाई जो कि दुखद था उसके लिए विपक्षी नेता अपनी छाती पीटते नहीं थकते।