जो झगड़ा जोमाटो और पंडित जी में शुरू हुआ वो हलाल और हिन्दू मुस्लिम झगडे में कैसे बदल गया समझ के बाहर है. पहली बात तो पंडितजी से पूछनी है कि सावन के पवित्र महीने में जिस तिस के हाथ का बना हुआ खाना खा लेना उचित है क्या जो खाना लाने वाले हाथ की पड़ताल शुरू कर दी. मैं नहीं कह रही कि खाना किसके हाथ से आ रहा है यह चुनना पंडित जी का हक़ नहीं है, मैं यह भी नहीं कह रही कि इसका महत्त्व हमारे धर्म में नहीं है. कुछ समय पहले तक हमारे परिवार के बड़े बुजुर्ग ‘चल कर आया ’ हुआ कच्चा खाना भी नहीं खाते थे . लेकिन ये भी निश्चित है कि रसोई बनाने वाला उसको लाने वाले से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. इसलिए पंडितजी तो चाय की प्याली में तूफ़ान लाते ज्यादा नज़र आते हैं.
लेकिन इसके साथ ही एक दूसरी बहस भी छिड़ गयी है कि दुनिया हलाल की तो परवाह करती है लेकिन हिन्दू भावनाओं काखयाल क्यों नहीं रखती. मुझे तो बचपन में सुनी हुई एक कहावत याद आ गयी कि कौवे के पीछे भागने से पहले अपनी नाक तो देख लो की उसे कौवा लेभी गयाहै या नहीं जोमाटो की भंगिमा निश्चय ही अहंकारसे भरी हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं है. जल्दी ही उसको अपनी गलती को मानना भी पडेगा. लेकिन जो लोग जोमाटो का नियमित प्रयोग करते हैं (मैं कभी नहीं करती) उनको पता होगा कि जोमाटो अपनी लिस्टिंग में एगलेस और जैन भोजन का भी ऑप्शन देता है. और उसमे कुछ गड़बड़ होने से माफी भी मांगता है. शायद पंडित जी को डिलीवरी बॉय के लिए अपनी वरीयता पहले ही जाहिर कर देनी चाहिए.
अब दूसरे मुद्दे पर आएं, भोजन इंडस्ट्री क्यों हलाल ऑप्शन को इतना महत्त्व देती है और दूसरे समुदाय की भावनाओं का ख्याल नहीं रखती. तो इसमें छोटी सी बात है की व्यवसाय बाज़ार की मांग के अनुसार चलता है. कुछ दशक पहले तक विदेश में शाकाहारी , बिना अंडे का खाना ढूंढें नहीं मिलता था. पांच सितारा होटलों में शाकाहारी भोजन मांगने वाले पर हंस भी देते थे. आज इंटरनेशनल फ्लाइट्स, टूर ऑपरेटर्स भी जैन और भारतीय शाकाहारी भोजन का ऑप्शन देते हैं. क्योंकि उनको लगता है कि जैन या शाकाहारी उनके ग्राहक है, बाज़ार हैं, उनके पास पर्चेज़िंग पावर और जो उनकी इच्छा का सामान उपलब्ध ना कराने से टूट भी सकते हैं. मैं और मेरा अधिकतर परिवार वैष्णव भोजन करते हैं. आज बड़े से बड़े होटल, पिज़्ज़ा हट जैसी फ़ास्ट फ़ूड चैन, जहा भी भोजन आर्डर पर बनता है, वैष्णव (बिना प्याज लहसुन ) भोजन बना कर देते हैं. जब से लोगो ने बिना झिझक कहना शुरू किया कि हम अंडे वाला सामान नहीं खाएंगे, अच्छे से अच्छी बेकरी वाले बिना अंडे का भोजन परोसने लगे हैं. पिछले साल मैं एक कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिए बैंकॉक गयी, वहाँ के एक शानदार पांचसितारा होटल में ठहरी थे. रूम सर्विस में जैसे ही पता किया कि शाकाहारी भोजन में क्या उपलब्ध है . तुरंत फ़ोन पर एक सीनियर कर्मचारी आयी और बोली मैडम हमारे पास केवल हलाल मीट होता है आप खा सकती हैं. मेरा जवाब था की मैं हिन्दू शाकाहारी हूँ, मुझे शाकाहारी भोजन ही चाहिए. उसने तुरंत कहा आप मेनू में से बताइये क्या खाएंगी हम उसको बिना मीट के बनाएँगे. ऐसा ही अनुभव मुझे अधिकतर जगहों पर हुआ. यकीन मानिये मुझे वैष्णव भोजन की ज्यादा किल्लत भारत में होती है.
बिना मांगे तो माँ भी बच्चे को दूध नहीं देती, यहाँ तो सबसे क्रूर शै से पाला पड़ा है, जिसे बाज़ार कहते हैं. यहां जब तक नुक्सान ना दिखे कोई किसी की परवाह नहीं करता. कितने हिन्दू, सिख या ईसाई ग्राहक ऐसे होंगे जो झटका मीट न मिलने पर पार्टी कैंसिल करके रेस्त्रां से निकल कर बाहर निकल आएंगे ? ये भी जाने दीजिये, कितने हैं जो शान से जा कर कहते हैं की हम झटका ही खाएंगे क्योंकि हमारे धर्म में हलाल मान्य नहीं है. दूसरी तरफ रेस्त्रां वाला जानता है की अगर उसने हलाल देने से मना किया तो न केवल ये ग्राहक जाएगा, इसके मुँह से सुनकर और भी बहुत से ग्राहक भविष्य में नहीं आएंगे. नतीजा, हर जगह लिखा जाने लगा की यहां हलाल परोसा जाता है. यही नहीं, कितने ऐसे हिन्दू या सिख ऐसे हैं जो अपनी दूकान या रेस्त्रां के बोर्ड या मेनू कार्ड में झटका मीट का ऑप्शन लिखते हैं. जबकि कुछ दशक पहले तक मीट की दुकानों पर यह आम तौर पर लिखा जाता था. अरे जब हमारे फ़ूड प्रेफरेंस हमारे लिए ही ज़रूरी नहीं तो बाजार के लिए क्यों होंगे ? इसको धार्मिक रंग दे कर क्या होगा जब अभी भी खाने के व्यवसाय में हिन्दू और सिखों का बोलबाला है. जरुरत है तो दृढ़ता से अपनी आस्था और विश्वास पर क़ायम रहने की, सोशल मीडिया पर भी और उसके बाहर भी.
Excellent viewpoint. Beautifully articulated.
Everything is becoming an issue nowadays. It’s sad how ever u incident is made into a religious and tolerance issue…
Well said…
Well done
Good interpretation,👏👏