नारी स्वतंत्रता के नए आयाम

आज सभी बौद्धिक – सामाजिक मंचों में यह चर्चा हो रही है कि स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए शासन की , न्यायपालिका , समाज या पुरुषों की क्या भूमिका हो और उनके लिए अनुकूल वातावरण किस तरह बनाया जाये कि वे अपनी पूर्ण क्षमता के साथ फल फूल सकें। मैं चर्चा करना चाहती हूँ कि शारीरिक और बौद्धिक परिवर्तन के साथ साथ  स्त्री के अंदर के संसार में क्या बदलाव आयें कि दुनिया उसके अधिक अनुकूल बन सके और वह अधिक दृढ़ता से प्रतिकूलता का सामना कर सके।

 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस एक सालाना त्यौहार कि तरह हर वर्ष आता  और चला भी जाता है।   सभा – जलसे ,सम्मान के आदान प्रदान के साथ  त्यौहार भी  निपट जाता है।  लेकिन इस दिन का महत्त्व इस से भी कहीं अधिक है। पुरुष प्रधान इस देश में महिलाओं को इतना महत्त्व मिला कि साल का एक दिन पूरा का पूरा उनके नाम कर दिया गया। मेरे इस वाक्य का महत्त्व शायद बहुत सी महिलाओं को समझ में ना आये। परन्तु अगर हम स्त्री संघर्ष का इतिहास उठा कर देखें तो पता चलेगा कि सती, पर्दा , निरक्षरता का अभिशाप झेलते हुए , स्वयं मन बुद्धि तथा आत्मा की स्वामिन होते हुए भी दूसरे मनुष्य की संपत्ति के रूप में जीते हुए, दोयम दर्जे की इंसान समझे जाने से मिले अपमान को सतत झेलने के लिए अभिशप्त नारी का संघर्ष बहुत लंबा रास्ता तय कर आया है। हम में से बहुतों को नहीं पता  होगा कि आज से सौ या डेढ़ सौ साल पहले महिलाओं की क्या सामाजिक स्थिति थी।  क्या कभी किसी ने यह सोचा कि जीवन की सुख  की बातें धरोहर की तरह मुह दर मुह अगली पीढ़ी तक पहुचाने की  परम्परा  स्त्री विमर्श पर चुप क्यों है!! अँगरेज़ हमसे कैसा व्यवहार करते थे, इसकी कहानियाँ  तो हमने बहुत सुनीं, लेकिन किसी   ने यह नहीं बताया कि तब भारतीय पुरुष अपनी स्त्रियों के साथ क्या करते थे । हम अपनी नानी दादी से अपने पुरखों की कहानियां सुनते हैं लेकिन उसमें भी स्त्री संघर्ष का कोई नामो निशाँ नहीं होता।

 

सती प्रथा, विधवा विवाह तो ऐसी बातें हैं जिन पर बहुत कुछ कहा सुना गया है। लेकिन शायद आपमें से बहुतों ने नहीं  सुना होगा कि एक  समय वह भी था जब पुणे की दो बहनें छाता लगा कर गली में निकलीं तो लोगों ने उनपर पत्थर फेंके। स्वामी दयानंद ने जब स्त्री शिक्षा की शुरुआत की तो अपने विरोधियों को शांत करने के लिए उन्हें कहना पड़ा कि स्त्रियों को केवल भाषा तथा नैतिक शिक्षा का  ज्ञान  दिया जायेगा गणित का नहीं। प्राचीन बंगाल में प्रचलित एक लोकोक्ति का भाव  कुछ इस प्रकार है कि जिस घर में औरतें जूता पहनने लगती हैं वहाँ भात  जलने लगता है। औरतों को  संपत्ति समझने जैसी बातें तो बड़ी सूक्ष्म हैं।

 

लेकिन ये सब बातें कभी इतिहास का हिस्सा क्यों नहीं बन सकीं , इसकी वजह बहुत गहरी है। समाचार और इतिहास का हिस्सा बने इसके लिए ज़रूरी है कि सुनने  वाले को उस घटना में कुछ अनोखा, उद्वेलक , नया लगे।  लेकिन ये सारी घटनाएं इतनी सामान्य सी लगती थीं कि भुक्तभोगी  महिलायें भी इनसे उद्वेलित नहीं होती थीं।  उनके लिए वही जीवन जीने का तरीका था। जैसे ग्रीनलैंड में रहने वाला उतना सर्दी का शोर नहीं मचाता जितना तमिलनाडु में रहने वाला मचाता है। ऐसे हमारे समाज में अगर महिला दिवस मनाया जा रहा है, तो यह उपलब्धि भी कुछ कम नहीं। बहुत कुछ पा लिया है लेकिन बहुत कुछ पाना बाकी है।  स्थूल स्तर पर तो कमोबेश आजादी मिली है लेकिन सूक्ष्म स्तर – सोच के स्तर पर अभी बहुत कुछ होना  बाकी है। बलात्कार विरोधी क़ानून बनाने के बाद भी लोगों का नजरिया ना बदलने से न केवल बलात्कार  और एसिड फेंकने जैसी घटनाएं कम नहीं होतीं बल्कि इनकी शिकार महिलाओं को न्याय मिलने में भी परेशानी आती है। दहेज़ कानूनन भले ही अपराध हो गया हो , लेकिन वर पक्ष ही नहीं अक्सर वधु पक्ष भी इसे छोड़ना नहीं चाहती। घरेलू हिंसा कठिन क़ानून के बावजूद जारी रहती है तो इसकी बड़ी वजह पीड़िता की चुप्पी ही होती है।  चाहे घर हो या कार्य स्थल , दोहरी मानसिकता की शिकार आज भी हैं महिलाएं।  निश्चय ही रास्ते की भौतिक बाधाएं कम हुईं हैं लेकिन आगे का काम बड़ा नाज़ुक है। क्योंकि अधिकारों के साथ साथ हमारी जिम्मेदारी भी बहुत बढ़ गयी है। स्त्रियों  द्वारा उठाया गया हर गलत कदम स्त्री संघर्ष को ही कटघरे में खड़ा कर देता है।  स्त्रियों के संघर्ष को यहाँ तक ले आने में न केवल पिछली पीढ़ी की स्त्रियों ने अपितु बहुत से पुरुषों ने भी बड़ा श्रम किया है, कष्ट झेले हैं। उन्नीसवी शताब्दी की रमाबाई के  पिता श्री अनंत शास्त्री को  अपनी पत्नी को शिक्षित करने के अपराध में गाँव से निकाल दिया गया था।  राजा राम मोहन राय को अपने परिवार के भीतर ही विरोध झेलना पड़ा था।  आज भी पत्नी का ध्यान रखने वाला पति जोरू का गुलाम ही कहलाता है। इसलिए मेरी समझ में पुरुषों को इस संघर्ष से अलग विरोधी समझने से काम नहीं चलने वाला है। बीसवीं सदी का उग्र नारी वाद शायद अब उतना कारगर नहीं है।

 

स्त्रियों की सहज कोमलता और स्नेहिल  प्रवृत्ति ही उनके विरुद्ध हथियार बन जाती है।  घरेलू मामलों में अक्सर बच्चों का मोह, मायके की तथाकथित प्रतिष्ठा स्त्रियों को ले डूबती है।  इस प्रवृत्ति को कमजोरी ना बना कर अपनी शक्ति  बनाना ही एकमेव मार्ग है। स्त्री हो या पुरुष, कई प्रकार के बंधनों में बंधे हैं और यह बंधन ही दुखों का मूल हैं।  तुलसीदास ठीक ही कहते हैं, पराधीन सपनेहु सुख नाही। ये पराधीनता या बंधन कई तरह का और कई  आयामों में होता है। शारीरिक , आर्थिक, भावनात्मक , आत्मिक आदि। आर्थिक और शारीरिक आज़ादी पश्चिम में हमसे बहुत पहले ही आ गयी थी। योरोपियन महिलाएं सदा से हमारे लिए स्वतंत्रता की प्रतिमूर्ति रही हैं , परन्तु European Union Agency for Fundamental Rights के ताजा सर्वेक्षण के अनुसार घरेलू या कार्यस्थल में हिंसा या यौन दुराचार की मात्र १४% घटनाएं स्त्रियों द्वारा उजागर की जाती हैं। एफ आर ए के निदेशक की मानें तो युरोपियन यूनियन  के सभी देश सघन घरेलू हिंसा ऐसे मामलों से भरे पड़े हैं, जिनकी किसी को कभी खबर ही नहीं होती। सर्वेक्षण के आंकड़े मोटे तौर पर बताते हैं कि वहाँ  लगभग ४० % महिलाएं  १५ वर्ष की उम्र तक शारीरिक या यौन हिंसा की शिकार हो चुकी होती हैं जिसमे हिंसा करने वाला परिवार का हिस्सा या अनजान व्यक्ति, कोई भी हो सकता है। यही नहीं लगभग इतनी ही महिलाएं जीवन के दूसरे भाग में भी पति, प्रेमी या सहकर्मी द्वारा हिंसा का शिकार होती हैं और उसे चुपचाप सह लेना चुनती हैं।

इस सर्वेक्षण से साफ़ होता है की शारीरिक या आर्थिक स्वतन्त्रता हमे मुक्ति के मार्ग पर कुछ दूर तक ही ले जाने  में समर्थ हैं। निश्चय ही इनमें से हिंसा के कुछ ऐसे मामले भी होते हैं जन्हें सामान्य कानून व्यवस्था का मामला भी माना जा सकता है। परंतु इसमें महत्वपूर्ण यह है कि वहाँ भी ८६% मामले प्रकाश में ही नहीं आते हैं।  यह कहीं न कहीं उनकी भावनात्मक पराधीनता का ही द्योतक है, आर्थिक एवं शारीरिक रूप से तो वे स्वतंत्र हैं ही।  मेरी दृष्टि में नारी स्वतन्त्रता के चरम तो तब ही होगा जब स्त्री पूर्ण से स्वतंत्र होगी।

भावनात्मक स्वतन्त्रता का अर्थ भावनाहीन होना नहीं है। ना ही इसका अर्थ अपने कर्तव्यों से भागना ही है।   किन्तु नारी सुलभ कोमलता और भवनाशीलता को अपनी दुर्बलता नहीं अपितु शक्ति बनाना है। हमें भारतीय जीवन दर्शन को दृष्टि में रखते हुए अपने जीवन और परिवार को पालना होगा। जैसा ईशोपनिषद में जीवन जीने की कुंजी है  त्याग पूर्वक भोग। कहते हैं स्त्री को बचपन में पिता , युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र के आधीन होना चाहिए। स्त्री का बंधन जन्म भर का माना जाता है।  यह ही सोच जीवन भर स्त्री को भावनात्मक  एवं शारीरिक हिंसा को चुपचाप सहना होता  है। भावनात्मक बंधन से दूर होना ही ईषोपनिषद्  का सार है। पति, परिवार, संतान सबके प्रति कर्त्तव्य और और प्रेम का पालन करते हुए भी अपने जीवन का सार खुद की या दूसरों  की बनायी हुई  चारदीवारी में  खुद को बाँध  देना ही सबसे बड़ी भूल होती है। इसे अगर एक स्थूल और व्यावहारिक सूत्र के रूप में तो कहें तो आज की स्त्रियों से एक ही बात कहने योग्य लगती है – पति ,परिवार , संतान एक एक  प्रोजेक्ट हैं, कॅरिअर नहीं। जिस तरह प्रोजेक्ट अपनी क्षमता भर पूरी दक्षता से किया जाता है, उसमे भावनात्मक रूप से जुड़ा भी जाता है. परन्तु प्रोजेक्ट पूरा होने के बाद अपने कॅरिअर में आगे बढ़ जाया जाता है, उसी तरह जब तक पति, परिवार या संतान के लिए अप्रासंगिक नहीं हो जाते, पूरे प्राण प्रण से उनके प्रति कर्त्तव्य निभाएं।  लेकिन उस बीच खुद को खोना नहीं होता , ताकि अगर कभी प्रोजेक्ट पूरा होता दिखे या हम उसके अप्रासंगिक होते दिखें तो भी जीवन रूपी कॅरिअर की गाड़ी रुक ना जाये।

 

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