भारतीय जनमानस और पर्यावरण संरक्षण

दिल्ली में कल आये आंधी और तूफ़ान ने मेरे जैसे कई दमा के मरीज़ों को दुर्गति कीअवस्थातक पहुंचा दिया. एक तरफ तो आंधी से उठने वाली धुल ने खांसी से बेदम किया उसके बाद बारिश की उमस ने तो जैसे साँसों के साथ सास बहु का सा नाता जोड़ लिया था.कहने वाले कहते हैं कि आंधी और धुल तो हमेशा से थे, ये क्या नया तमाशा शुरू हो गया है. उखड़ी हुई साँसों के साथ उनको समझाना भी मुश्किल किड़हुल और उमस तो सिर्फ बहाना है, हमारे फेफड़े तो प्रदूषण ने बेदम कर दिए हैं. और, प्रदूषण केवल हमारे जैसों के फेफड़ों का हे दुश्मन नहीं है, और भी बहुत कुछ कर रहा है. पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण आधुनिक विश्व के भयंकरतम और सर्वग्रासी समस्या के रूप में सामने आ रहे हैं. यह भी दर्पण की तरह स्पष्ट है कि बाकी समस्याओं की तरह यह भी मनुष्य की स्वयं बनायी हुई है. पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलता और संसाधनों का गैर अनुपातिक दोहन इस समस्या की जड़ में है. आज सभी राष्ट्र एक स्वर में इस चिंता में शोर मचा रहे हैं. फिर भी यह समस्या सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती ही जा रही है. इसका कारण क्या है? क्यों मनुष्य जान बूझ कर अपना सर्वनाश करता जा रहा है? इसका एक ही कारण है, कहते हैं कि पृथ्वी में सभी मनुष्यों की आवश्यकता पूर्ति के लिए आवश्यक संसाधन हैं, लेकिन एक व्यक्ति के भी लोभ की पूर्ती के लिए संसाधन अपर्याप्त हैं. हानिकारक गैसों का उत्सर्जन, वनों का क्षरण, वैश्विक ऊष्मा आदि कारण अपनी जगह हैं, लेकिन सबके मूल में एक ही बात है. व्यक्तिगत और समष्टिगत, दोनों ही स्तरों पर तात्कालिक लाभ पर दृष्टि रखने की प्रवृत्ति ही इसके मूल में है.
भारतीय मनीशियन ने संभवतः इसका अनुमान सदिओं पहले ही लगा लिया था. भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण को स प्रकार का स्थान दिया गया है कि यह जनमानस का अभिन्न अंग बन गया है. भौतिक जगत का आधार पांच तत्त्वों को माना गया है – धरती , जल, आकाश, अग्नि, और वायु. सांख्य में प्रणीत क्वांटम भौतिकी के मूलभूत सिद्धांतों को आंशिक रूप से ही सही, आधुनिक विज्ञान भी मानने लगा है. मनुष्य शरीर भी इन्ही पांच तत्त्वों से ही बना है. पृथ्वी तथा उसके मूल तत्त्वों और उस से बने पदार्थों को भारतीय संस्कृति में भोग विलास के लिए उपलब्ध जड पदार्थों के रूप में मान्यता नहीं दी गयी है.
प्रकृति की उपासना वैदिक संस्कृति का अंग रही है, वेदों में इंद्रा तथा वरुण प्रमुख देवता माने गए हैं. यह पकृति की उपासना का ही प्रतीक है. प्राचीन वैदिक तथा परावैदिक साहित्य में कई ऐसे उदाहरण आते हैं जहाँ वर्षा , जल अथवा वायु के देवता सर्वाधिक प्रभावशाली एवं शक्तिशाली देवताओं के रूप में सामने आते हैं. यहां यह समझना तो बालसुलभ भूल ही होगी कि वरुण या इंद्र तड़ित वज्र हाथ में ले कर युद्ध करने वाले व्यक्तित्त्व होंगे. इन्हें प्रतीक रूप में समझें तो यह स्पष्ट होता है कि वेद स्रष्टा ऋषियों को मनुष्य के अस्त्तित्त्व रक्षण में प्रकृति के रक्षण की अनिवार्यता का ज्ञान था. पुराणों तथा महाकाव्यों (रामायण, महाभारत) में ऐसे उदाहरों की कमी नहीं है. रावण के अत्याचारों से दुखी पृथ्वी का ब्रह्मा की शरण में जाना और विष्णु का उसके उद्धार का आश्वासन देना मात्र कवि की कल्पना नहीं है. इसके पीछे पृथ्वी के जीवंत अस्तित्त्व को स्वीकार करने तथा उसके महत्त्व को स्थापित करना ही उद्देश्य है. हिमालय पर्वत की पुत्री पार्वती, धरती की पुत्री सीता, गंगा के पुत्र भीष्म , शिव के शीश पर विराजमान गंगा, अगस्त्य के अनुयायी विंध्याचल के प्रसंग पुनः इस तथ्य की पुष्टि करते हैं. नदियों तथा पर्वतों को चेतन सत्ता मानने के प्रसंगों से तो प्राचीन भारतीय साहित्य भरा पड़ा है.
ऐसा माना जाता है कि ८४ लाख योनियों में जन्म लेने के बाद मनुष्य जीवन मिलता है और यही योनि जीव की मुक्ति का भी माध्यम भी बनती है. परन्तु इससे भी आश्चर्यजनक बात तो यह है कि चौरासी लाख योनिओं की यह यात्रा पर्वत और वृक्ष जैसी जड़ योनिओं से प्रारम्भ होती है. यहां भी ऋषिओं ने मनुष्य और प्रकृति के बीच तादात्म्य स्थापित करने का कार्य किया है. आधुनिक भारत के महान योगी ने श्री अरविन्द ने “अतिचेतन सत्ता ” की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा है कि चेतना का उद्विकास जड़ से होकर अतिचेतन तक पहुँचता है. जड़ से चेतन और चेतन से परम चेतन तक की यह यात्रा ही भारतीय जनमानस को प्रकृति से जोड़ती है. इसी जुड़ाव का परिणाम ही पर्वत, वृक्ष और नदिओं की उपासना है.
यदि हम तथाकथित आधुनिक और परम्पराओं से अलग हुए अतिभौतिकवादी मुट्ठी भर भारतीयों को छोड़ दें, तो सामान्य भारतीय की सोच एकदम अलग है. वह नदी को प्रदूषित करने की तो क्या सोचता , उसकी परम्परा में पवित्र नदियों में डुबकी लगाने से पहले स्नान करके शुद्ध होने का प्रावधान है. हरे वृक्षों को काटना उसकी परम्परागत सोच का हिस्सा नहीं है, क्योंकि उसकी दृष्टि में वृक्ष लगाना परम पुण्य और हरे वृक्ष को काटना जघन्य पाप है. हरे वृक्ष को पुत्र के सामान मान्यता दी गयी है. और तो और उसकी संस्कृति में जड़ी बूटियों को तोड़ने से पहले वनस्पतियों से क्षमा मांगने और आज्ञा लेने की शिक्षा मिलती है.
आज के युग में पर्यावरणीय संकट को टालने के लिए किये जाने वाले सभी प्रयास अपनी जगह सही हैं लेकिन उन सबसे अधिल आवश्यक है प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता और तादात्म्य स्थापित करना. इस कार्य में हमारे सनातनी मूल्यों की पुनर्स्थापना से अधिक उपयोगी क्या हो सकता है?

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